भारत में आर्थिक सुधार कब शुरू हुए?
नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 24 जुलाई 1991 को आर्थिक सुधार शुरू किए गए थे। इन सुधारों को हम LPG सुधारों के रूप में भी जानते हैं।
आर्थिक सुधार के कारण
- औद्योगिक क्षेत्र का खराब प्रदर्शन – सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों ने 1950-1990 में आर्थिक विकास को तेज करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां ठीक से प्रदर्शन नहीं कर रही थीं, औद्योगिक क्षेत्र का खराब प्रदर्शन के कारण वित्तीय घाटा बढ़ा और आर्थिक विकास दर धीमी हो गई।
- राजकोषीय घाटे में वृद्धि – औद्योगिक क्षेत्र के खराब प्रदर्शन के कारण राजस्व में वृद्धि नहीं हुई, लेकिन सरकार का व्यय लगातार बढ़ रहा था, जिससे राजकोषीय घाटे में वृद्धि हुई।
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक के नियम और शर्तें – आर्थिक संकट के दौरान भारत ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक से आर्थिक पैकेज की मांग की। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक ने भारत को $7 बिलियन का आर्थिक पैकेज देने की पेशकश की, लेकिन कुछ शर्तों के साथ, जैसे कि भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना होगा, व्यापार को आसान बनाना आदि शर्ते शामिल थी।
- कम विदेशी मुद्रा भंडार – निजी क्षेत्र के कोई उद्योग नहीं होने के कारण, हमारा निर्यात बहुत कम था, लेकिन हमारे आयात धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। इसीलिए भारत को अन्य देशों के साथ व्यापार करते समय व्यापार घाटे का सामना करना पड़ता था।
- खाड़ी युद्ध और मुद्रास्फीति – खाड़ी युद्ध के कारण कच्चे तेल की कीमतें आसमान छू रही थीं। इसीलिए भारत को तेल खरीदने के लिए अधिक विदेशी मुद्रा की आवश्यकता थी। दूसरा, कच्चे तेल की कीमत में वृद्धि के साथ, परिवहन लागत में भी वृद्धि हुई, जिसके कारण वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में भी वृद्धि हुई।
1991 की नई आर्थिक नीति के मुख्य उद्देश्य।
- 1- विश्व अर्थव्यवस्था के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को एकीकृत करना।
- 2- व्यापार को बढ़ावा देना और भुगतान संतुलन के संकट को दूर करना।
- 3- लाइसेंस प्रणाली को समाप्त करके निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना।
- 4- कई प्रतिबंधों को हटाकर कमांड अर्थव्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था में बदलना।
- 5- मुद्रास्फीति दर को कम करना।
1991 में, भारत सरकार ने कई क्रांतिकारी कदम उठाए जैसे कि कई क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाना, लाइसेंस प्रणाली को समाप्त करना और अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाना, ताकि प्रतिस्पर्धा में वृद्धि के साथ-साथ देश में उत्पादन क्षमता भी बढ़ सके।
नई आर्थिक नीति के तहत उठाए गए कदम
1- उदारीकरण
1- उदारीकरण – भारत में आर्थिक उदारीकरण 1991 में शुरू हुआ, जिसमें कुछ क्षेत्रों में सीमित सीमा के साथ एक मुक्त बाजार बनाने के लक्ष्य के साथ और कठोर नियमों में ढील के माध्यम से देश में निजी क्षेत्र और विदेशी निवेश की भूमिका का विस्तार किया गया।
भारत में उदारीकरण की प्रक्रिया (Process of Liberalization in India in Hindi)
- 1- औद्योगिक क्षेत्र का नियमन।
- 2- पारदर्शिता बढ़ाई गई।
- 3- आयात अवरोधों को खत्म किया गया।
- 4- निजी क्षेत्र और विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करना।
- 5- उत्पादन के लिए लाइसेंस प्रणाली को खत्म कर दिया गया। इससे पहले निजी क्षेत्र की कंपनियों को सरकार से लाइसेंस लेना पड़ता था।
2- निजीकरण
निजीकरण की नीति के अनुसार, निजी क्षेत्र को सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के लिए आरक्षित क्षेत्रों में व्यवसाय करने की अनुमति देना और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की हिस्सेदारी को निजी क्षेत्र को बेचना। इससे, सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के एकाधिकार को समाप्त कर दिया।
निजीकरण का मुख्य लक्ष्य सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को घाटे से मुनाफे में लाना और उत्पादकता बढ़ाना था।
निजीकरण के लिए उठाए गए कदम
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश
सरकार ने घाटे में चल रहे सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश की प्रक्रिया शुरू की, जो आज भी जारी है।
एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया
निजीकरण के तहत, सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के लिए आरक्षित क्षेत्रों को कम कर दिया।
3- वैश्वीकरण
वैश्वीकरण का अर्थ व्यापार, आपूर्ति श्रृंखला के माध्यम से भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत करना है।
वैश्वीकरण के लिए उठाएं गए कदम
- निवेश को बढ़ावा – पहले कई क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमा तय थी, लेकिन नई नीति के तहत, सरकार ने कई क्षेत्रों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) की सीमा को 40% से बढ़ाकर 100% कर दिया। इसका मुख्य उद्देश्य देश में विदेशी निवेश को बढ़ाना था।
- कर की दरों में कटौती – भारत को निवेशकों के लिए एक आकर्षक अर्थव्यवस्था बनाने के लिए आयात और निर्यात पर लगने वाले कर को धीरे-धीरे कम किया गया।
अन्य बड़े सुधार
वाणिज्यिक बैंकों को ब्याज दरें स्वयं निर्धारित करने की स्वतंत्रता दी गई।
वाणिज्यिक बैंक अब स्वयं ब्याज दरें निर्धारित कर सकते थे, अब भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित ब्याज दरों को स्वीकार करने की बैंकों की बाध्यता समाप्त हो गई थी। यह निर्णय बहुत बड़ा था, जिसके कारण भारत में निजी बैंक आज सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में अधिक कुशल हैं।
आयात करने की स्वतंत्रता
भारतीय उद्योगों को विदेशों से माल आयात करने की पूरी आजादी दे दी गई।
उत्पादन के लिए स्वतंत्रता
पहले सरकार ने उत्पादन पर एक सीमा लगा रखी थी, लेकिन 1991 में नई औद्योगिक नीति के तहत, उत्पादन पर सभी प्रकार की सीमाएं समाप्त कर दी गईं, अब उद्योग मांग और आपूर्ति के अनुसार उत्पादन कर सकते हैं।